मैं और मेरे अंदर का "मै"
मन करता है, लिख दूँ सब जो मेरे दिल में है।
रुक जाता हूँ, सोचकर कि पढ़कर खुद ही न जला दूँ उसे।
बहुत मन करता है, मेरे अंदर के 'मैं' से मिलने का।
फिर रुक जाता हूँ, सोचकर कि कहीं पहचान नहीं पाया तो उसे।
मुलाकात --
वैसे तो हम दोनों एक ही घर में एक साथ रहते हैं, पर मिलना बहुत थोड़ा ही होता है।
सामने आ जाने पर, मैं भी कतराता हूँ, वो भी कतराता हैं। शब्दों में बात नहीं हो पाती है।
पिछले साल की आखिरी रात चौराहे पर पान खाते हुए मिला था।
हाथ पकड़ कर घर ले आया और मुँह धुला दिया मैंने।
एक शनिवार की शाम महफ़िल में भी मिला था, हाथ में जाम था, बहुत खुश लग रहा था।
कुछ देर तक दूर से खड़ा होकर देखता रहा उसे, फिर उसे मुस्कुराता हुआ वहीं छोड़कर घर लौट आया मैं।
बहुत मन करता है, मेरे अंदर के 'मैं' से बैठकर बात करने का, सवाल पूछने का।
फिर रुक जाता हूँ, सोच कर कि कहीं शर्मिंदा न कर दे मुझे।